रिपोर्ट सुदेश वर्मा।
बागपत/ बडौत/ बरनावा क्षेत्र में देवाधिदेव अतिश्यकारी चंदाप्रभु भगवान के समक्ष जैन धर्म के 20वें तीर्थंकर मल्लिनाथ भगवान का मोक्ष कल्याण बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया गया । आर्यिका 105 सुज्ञानमती माताजी आर्यिका 105 दयामती माताजी एवं क्षुल्लिका अक्षत मती माताजी सानिध्य समाज को प्राप्त हुआ । सर्वप्रथम चतुर्थकालीन अतिशयकारी चंद्रप्रभु भगवान एवं बेदी में विराजमान मल्लिनाथ भगवान का अभिषेक किया गया रिद्धि-सिद्धि-समृद्धि को प्रदान करने वाले शांति मंत्रों के द्वारा भगवान मल्लिनाथ के ऊपर शांति धारा की गई। शांति धारा के पुण्यार्जक परिवार के रूप में राकेश कुमार प्रमोद कुमार जैन टुडे परिवार को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ । शांति धारा के बाद नित्य दैनिक पूजन एवं निर्वाण कांड के उपरांत भक्ति के साथ लाडू चढ़ाया गया, इसके साथ ही मल्लिनाथ भगवान के सुमधुर जयकारों के साथ में पूरा मंदिर गुंजायमान हो उठा ।फाल्गुन शुक्ल पंचमी का पावन अवसर है आज के दिन जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों में से 20वें तीर्थंकर मल्लिनाथ भगवान ने अपने समस्त कर्मों की निर्जरा कर परम निर्वाण अवस्था को प्राप्त किया था । अनादिकाल से अनन्त पुण्यात्माओं ने मानवरुप में जन्म लिया लेकिन उनमें से अनेकों पुरुषों ने श्रमण स्वरुप को प्राप्त किया कुछ ऐसे महापुरुष हुए जिन्होंने अपने जीवन से अपने साथ-साथ अनेकों जीवों का कल्याण किया । उन्ही में तीर्थंकर मल्लिनाथ भगवान भी हुए । पूर्वाचार्यों ने ग्रन्थों में तीर्थंकरों के जीवन के बारे में विस्तृत रूप से बताया कैसा उनका जीवन होता है, किस प्रकार उनका वैभव होता है कि स्वयं देवता उनके कल्याण को मनाने के लिए स्वर्ग से आते हैं । ऐसे ही भगवान मल्लिनाथ के निर्माण के उपरांत उनके निर्माण कल्याण को मनाने के लिए उनकी पावन रज को प्राप्त करने के लिए उनके कल्याण को मनाने के लिए देवता स्वर्ग से आए थे । आचार्य कहते हैं यह तीर्थंकरों के जीवन का वृतांत सुनने एवं सुनने से पुण्य की प्राप्ति होती हैं और उनकी पूजन करने से जीव को परम्परा से परम पदों की प्राप्ति होती है । यह परम पद वही है जो जिनका स्मरण णमोकार मंत्र में हम प्रतिदिन करते हैं । अरिहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय और सर्व साधु । जिस जीव ने मानव जीवन को प्राप्त किया, मनुष्य भव को प्राप्त किया वह बड़ा पुण्यशाली जीव होता है जिसने जैन धर्म में वर्णित सिद्धांतों को अपने जीवन में अपनाया, वह श्रावक न केवल अपने इस जीवन को धन्य करता है अपितु आने वाले सभी भावों को भी धन्य करता है करता हुआ तीर्थंकरों के समान ही परम निर्माण अवस्था को प्राप्त करता है।।